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मन्दिरोँ को मन्दिर ही रहने देँ

शब्दस्वर
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मन्दिर तथा अन्य धार्मिक स्थल समाज की आस्था के केँद्र होते हैँ । लोग यहाँ आकर आत्मिक शाँति के साथ आध्यात्मिक ऊर्जा भी प्राप्त करते हैँ । मूर्ति पूजक भारतीय संस्कृति मेँ मन्दिरोँ के महत्व के कारण इनके विकास का क्रम आदिकाल से वर्तमान समय तक निरंतर प्रवाहमान है । लोग अपनी श्रद्धानुसार धन तथा अन्य उपयोगी वस्तुएँ भगवान को अर्पित करते हैँ जिससे इन स्थलोँ के विकास कार्य चलते हैँ । लेकिन वर्तमान समय मेँ हमारा समाज व्यक्तिवादी पाश्चात्य सोच के कारण असंगठित होता जा रहा है । परिवार छोटे और व्यक्तिवादी होते जा रहे हैँ । इसी सोच के कारण कभी समाज को दिशा देने वाले हमारे देवस्थान आज व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओँ की पूर्ति के साधन बन कर रह गये हैँ । जनता द्वारा चढ़ाये गये पैसे का दुरुपयोग एक सामान्य बात है । हिमाचल जैसे पहाड़ी क्षेत्र मेँ मंदिरोँ के विकास के नाम पर सीमेँन्ट कंक्रीट के विशाल ढांचे खड़े किये जा रहे हैँ । इनकी जमीन तथा साधनोँ का उपयोग निजी हितोँ को साधने मेँ किया जा रहा है जो जनता की भावनाओँ का सरासर अपमान है । श्रद्धालुओँ के पैसे से निर्मित भवन जंजघरोँ मेँ परिवर्तित हो गये हैँ । ‘सर्वे भवन्तु सुखिन’ की भावना लुप्त होती जा रही है तथा व्यक्तिगत मनौतियोँ द्वारा धन लाभ व सांसारिक स्वार्थोँ की पूर्ति की कामना की जाती है । गहराई से यदि विचार करेँ तो प्रतीत होगा कि आज हमारा विशाल हिन्दु समाज व्यक्तिगत धार्मिक कर्मकाण्डोँ के चक्रव्यूह मेँ उलझकर रह गया है । छूआछूत के चलते कई मन्दिरोँ मेँ हरिजन प्रवेश नहीँ कर सकते । आज आवश्यकता है कि हमारे मन्दिर समाज मेँ व्याप्त कुरीतियोँ को दूर कर उसे संस्कारित तथा संगठित करने की महती भूमिका को निभायेँ , तभी हमारा समाज आधुनिक विकास के साथ साथ अपने प्राचीन गौरव को भी फिर से प्राप्त कर सकता है ।
– सुरेन्द्र पाल वैद्य
मण्डी ( हि. प्र. )

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