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होली और बसँत (कविता)

शब्दस्वर
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बात यही है सत्य
-॰-॰-॰-॰-॰-॰
होली और बसंत की ,
चँहु ओर है धूम ।
फूट रही नव कोँपले ,
प्रकृति रही है झूम ।
प्रकृति रही है झूम ,
पल्लवित पुष्प हो रहे ।
नवरंगोँ से आच्छादित ,
माहौल कर रहे ।
बात यही है सत्य ,
प्रकृति से यही सीख लो ।
अज्ञानी मत बनो ,
ज्ञान के चक्षु खोलो ।।
– ॰-॰-॰-॰-॰-॰
राजनीति के इस हमाम में ,
नेता नंग धड़ंग ।
भ्रष्टाचार में उछल कूद कर ,
हो गए हैं बदरँग ।
हो गए हैं बदरँग ,
मगर ओढ़ी है खादी ।
देख रहे हैं आँख फाड़,
जन की बरबादी ।
बात यही है सत्य ,
शर्म इनको नहीँ आती ,
जनता भोली भाली ,
होली खेलती जाती ।।
– ॰-॰-॰-॰-॰-॰
जीत चुके नेता खेलेँगेँ ,
अब की होली ।
हारे नेता की तो सिट्टी ,
पिट्टी ही गुम हो ली ।
पिट्टी ही गुम हो ली ,
मगर करेँगेँ अब क्या ।
होली पर इनको ,
बख्शेगा कोई क्योँ क्या ।
बात यही है सत्य ,
छोड़ वोटोँ की बोली ।
हार जीत है चलती ,
खुल कर खेलो होली ।
-॰-॰-॰-॰-॰-॰-॰-॰-॰-॰-

– सुरेन्द्रपाल वैद्य

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