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‘Contest’ हिन्दी भारत के सम्मान और मुख्यधारा की भाषा।
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भारतीय संस्कृति की अवधारणाओं में विश्व तथा जीवमात्र के कल्याण की कामना की गई है। वसुधैव कुटुम्बकम् ही भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। लेकिन इसके विपरीत आज इस देश की धरती तथाकथित वैश्विकरण की प्रयोगशाला बनती जा रही है। इसका दुष्प्रभाव यहां राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रों में अनुभव किया जाने लगा है।
भाषा किसी भी देश की संस्कृति की पहचान होती है। भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी है जिसके कारण यह यहाँ की प्राचीन गौरवशाली संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। आज यह पूरे देश की सम्पर्क भाषा का कार्य बखूबी कर पाने में सक्षम है। भारतीय चिन्तन के विपरीत वैश्विकरण की पश्चिमी अवधारणा के कारण पूरा विश्व एक बाजार बनकर रह गया है। मानवीय संवेदनाओं से शून्य इस बाजार में मनुष्य एक उपभोक्ता ग्राहक भर है। इसी के कारण भारत में हिन्दी को बाजार की जरूरतों के अनुरूप बाजार की भाषा बनाने के प्रयास जारी हैं। दूसरी ओर हमार देश यहां के अदूरदर्शी तथा ढुलमुल राजनैतिक नेतृत्व के कारण तकनीकी तथा आर्थिक विकास की दौड़ में शेष विश्व से बहुत पीछे है।
इक्कीसवीँ सदी में विज्ञान ने दूरसंचार तथा सूचना प्रौद्यौगिकी के क्षेत्र में अभूतपूर्व आविष्कार किये हैं। कम्प्यूटर तथा इन्टरनेट के बढ़ते उपयोग ने देश के जनजीवन को बदलकर रख दिया है। राष्ट्र के समाज जीवन के ये जरूरी अंग बन गए है। शिक्षा के क्षेत्र में तो यह पूरी तरह से अपनी पैठ बनाते जा रहे हैं। स्कूली बच्चों को भी मुफ्त में लैपटाप बांटने की घोषणाएं आए दिन राजनेताओं द्वारा की जा रही है। आज धन और तकनीक की शक्ति से भ्रष्ट और लोभी सत्ता की राजनीति ने पूरी संवेदनहीनता के साथ देश की हिन्दी के साथ खिलवाड़ शुरू कर दिया है। सत्ता की राजनीति में अन्धे राजनेता अंग्रेजी की चकाचौंध में दिग्भ्रमित हो गए हैं। उन्होंने अंग्रेजी को ज्ञान, विज्ञान और विकास की भाषा मान लिया है। हिन्दी को राजभाषा का दर्जा देने के बाद भी अंग्रेजी का पोषण जारी है। देश की भाषाएँ अपने बूते आगे बढ़ रही है। हर जगह शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बनती जा रही है। इस प्रकार हम देखते है की हिन्दी भाषा को देश की मुख्यधारा से काटने के प्रयास किए जा रहे हैं।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बढ़ते प्रभाव के कारण देश की सभी भाषाओं के साथ हिन्दी का विकास भी उनकी आवश्यकताओं पर निर्भर होता जा रहा है। विदेशी उपभोक्तावाद और स्वार्थी सत्तालोलुप स्वदेशी मानसिकता के घालमेल ने हिन्दी को बाजारवाद के हवाले कर दिया है। इसके पंजे से मुक्त होने के लिए हिन्दी को विशुद्ध राष्ट्रवादी राजनैतिक नेतृत्व की बहुत आवश्यकता है।
अंग्रेजी मानसिकता से मुक्त दिल और दिमाग ही हिन्दी को राष्ट्रीयता से जोड़कर इसके विकास में देश का विकास अनुभव कर सकता है। हमारी भाषा के पीछे हमारे संस्कार तथा विकास का एक क्रम है जिसकी अनदेखी करके हम उन्नति नहीं कर सकते। जनसंख्या के आधार पर भारत चीन के बाद विश्व का सबसे बड़ा देश है। सबकी नजरें इसके बाजार पर है। इस कारण से इसके विकास को एक सही विकासोन्मुख दिशा देने की आवश्यकता है। यद्यपि आज सूचना प्रौद्योगिकी तथा इन्टरनेट पर हिन्दी का उपयोग बढ़ता जा रहा है लेकिन सरकारी स्तर पर उदासीनता का भाव हर जगह दिखाई पड़ता है। इन्टरनेट पर देवनागरी की जगह रोमन में हिन्दी लिखी जा रही है।
लोग अपनी सुविधा के हिसाब से काम कर रहे हैं, उन्हें दिशा और साधन उपलब्ध करवाने की आवश्यकता है। स्कूलों और उच्च शिक्षा में हिन्दी को लागू करने से ही इसका विकास सही दिशा में होगा।
शिक्षा और भाषा हर देश की संस्कृति के संवाहक होते है। भारत की उन्नत और उत्कृष्ट संस्कृति की पुनर्स्थापना करने के लिए हिन्दी को हर हालत में राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करना होगा। इसके लिए देश को राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना से ओतप्रोत, गुलाम अंग्रेजी मानसिकता से मुक्त, दृढ़ निश्चयी तथा कर्तव्यनिष्ठ नेतृत्व की आवश्यकता है। एक बार हृदय में ठान लें तो हिन्दी के मार्ग की सभी बाधाएं स्वतः ही दूर हो जायेंगी। भारत और हिन्दी एक दूसरे के बिना अधूरे है, हिन्दी ही भारत की अभिव्यक्ति है और इसका भविष्य उज्ज्वल है।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य।
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