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सत्ता के सूरज को ग्रहण

शब्दस्वर
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सत्ता के सूरज को ग्रहण
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सत्ता के सूरज को ग्रहण लगाने के लिए राहू को जाना था। कहाँ जाना था…! यह उसे बताने वाला कोई नहीँ था। जब से सूरज विदेशी राहुओं के चंगुल से आजाद हुआ था तभी से ही स्वदेशी राहू उसे ग्रसते आ रहे थे, एक ही खानदान के राहू। लोगों को गलतफहमी थी कि इसी खानदान के लोगों ने अनुष्ठान करके हमें विदेशी राहू की खतरनाक दशा से मुक्ति दिलाई है, यह राहू खानदान सत्ता को ग्रसता रहा है। हालांकि इतिहास इस बात को जानता है कि विदेशी राहुओं से मुक्ति दिलाने के पीछे लाखों दीवाने क्रांतिवीरों की कुर्बानियों का भारी योगदान रहा है। आज की राहू से त्रस्त जनता भी यह बात भली भाँति जान गई है। इसका आभास जनता ने हाल ही में हुए चुनाव के अनुष्ठान में करवा दिया है।
विडम्बना देखिये कि जैसे लोग बस में सीट पर रूमाल रख कर काबिज हुए रहते हैं वैसे ही ये भी एक कठपुतली को रूमाल बनाकर सत्ता हाथ में रखने का फार्मूला अपनाये हुये हैं, जिसके विनाशकारी परिणाम जनता ने भुगते हैं।
अपने बेटे राहु के लिये पापड़ बेल बेलकर माँ परेशान है….! लेकिन क्या करे?
राह चलते नीम हकीम टोटके वाले भी अव तो राहू खानदान को आँख दिखाने लगे हैं। सत्ता की सीट अपने आका के लिए रिजर्व कर बैठी कठपुतली भी परेशान है। अपमान सहने और हर किसी की ठोकर खाने की भी एक सीमा होती है। आखिर कब तक कोई रूमाल बनकर पड़े पड़े सीट रोके रख सकता है। कठपुतली नाचते नाचते परेशान है, कई बार इस पचड़े से मुक्ति पाने की इच्छा जताई, कोशिश की और राहू के नेतृत्व में खुद काम करने की बात कही लेकिन सब व्यर्थ….।
अब तो राह चलते नीम हकीम भी अपना तामझाम फिट करके
राहू की दशा से जनता को मुक्ति दिलाने का दम भरने लगे हैं। हालात तो यहाँ तक आ पंहुचे है कि राहू को ही खुद अन्य ग्रहों तथा उपग्रहों के जमावड़ों से डर लगने लगा है। इस सारी उठापटक में झाड़ू जैसी पूंछ वाले एक नये ग्रह का उदय भी राजनीति के आकाश में हुआ लेकिन वह अपनी नापाक इच्छा से ही राहु के गुरूत्वाकर्षण वाले क्षेत्र में फंसकर छटपटा रहा है। आखिर एक नौकरशाह कव तक राजनीति का लबादा ओढ़कर नौटंकी कर सकता है।
अव आखिर राहू की भी तो मां है, और मां का बेटे के लिए परेशान होना स्वाभाविक भी है। इसके साथ साथ पूरा परिवार तथा शुभचिंतक तथा अन्य लाभार्थी भी परेशान हैं। लेकिन निकट भविष्य में देश एक बहुत बड़े लोकतंत्र के अनुष्ठान से गुजरने वाला है जिसे आम चुनाव कहते हैं। जनता इसे कितनी गंभीरता से लेती है यह तो समय ही बतायेगा। लेकिन एक बात तो पक्की लगती है कि समय ने करवट बदलने की तैयारी कर ली है। अब ऊँट किस करवट बैठता है देखना बाकी है। आशा की जानी चाहिये कि अबकी बार देश की सत्ता राहू की खतरनाक दशा से मुक्त होकर रहेगी, क्योँकि परिवर्तन के इस अनुष्ठान को सफल करने के लिये जनता ने सही दिशा में प्रयास करने शुरू कर दिये हैं।
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सुरेन्द्रपाल वैद्य।

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