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बसंत ऋतु-कुछ मुक्तक
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कोंपलें फिर नई, फूटने लग पड़ी।
हो रही है विदा, सर्दियों की झड़ी।
प्रकृति अब नये, रंग से खिल रही।
आ भी जाओ प्रिये, अब रहो न खड़ी।
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लग रही है मधुर, पंछियोँ की चहक।
और फूलों की भी, घुल गई है महक।
है अधूरी मगर, पूरी दृश्यावली।
तुम्हारी प्रिय अदायें, न हों जब तलक।
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फूल पर देखिये, उड़ रहीँ तितलियाँ।
गुनगुनाते भ्रमर, की ये अठखेलियाँ।
पाखियों का चहकना, बढ़ा जा रहा।
और मटकने लगी, हैं युवा टोलियाँ।
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रूप दर्पण में, यूं न निहारा करो।
न स्वयं को ही, ऐसे सँवारा करो।
रूप निखरा है, जब चाँदनी की तरह।
प्रिये चाँद को, तुम निहारा करो।
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रोज आती ऊषा, स्वर्ण किरणें लिए।
सूर्य पथ दिव्य, आभा से भरते हुए।
साथ आओ बढ़ेँ, हम इसी राह पर।
लिए प्यार के, दिल छलकते हुए।
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अब नये पुष्प हर, डाल पर खिल गए।
शुष्क पत्तों के दिन, भी विदा हो गए।
अमराई में कोयल, लगी कूकने।
क्षण मधुर है प्रिये, अब हमें मिल गए।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य
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