Menu
blogid : 5617 postid : 704189

बसंत ऋतु-कुछ मुक्तक

शब्दस्वर
शब्दस्वर
  • 85 Posts
  • 344 Comments

बसंत ऋतु-कुछ मुक्तक
………..
कोंपलें फिर नई, फूटने लग पड़ी।
हो रही है विदा, सर्दियों की झड़ी।
प्रकृति अब नये, रंग से खिल रही।
आ भी जाओ प्रिये, अब रहो न खड़ी।
……….
लग रही है मधुर, पंछियोँ की चहक।
और फूलों की भी, घुल गई है महक।
है अधूरी मगर, पूरी दृश्यावली।
तुम्हारी प्रिय अदायें, न हों जब तलक।
………..
फूल पर देखिये, उड़ रहीँ तितलियाँ।
गुनगुनाते भ्रमर, की ये अठखेलियाँ।
पाखियों का चहकना, बढ़ा जा रहा।
और मटकने लगी, हैं युवा टोलियाँ।
………..
रूप दर्पण में, यूं न निहारा करो।
न स्वयं को ही, ऐसे सँवारा करो।
रूप निखरा है, जब चाँदनी की तरह।
प्रिये चाँद को, तुम निहारा करो।
………..
रोज आती ऊषा, स्वर्ण किरणें लिए।
सूर्य पथ दिव्य, आभा से भरते हुए।
साथ आओ बढ़ेँ, हम इसी राह पर।
लिए प्यार के, दिल छलकते हुए।
………..
अब नये पुष्प हर, डाल पर खिल गए।
शुष्क पत्तों के दिन, भी विदा हो गए।
अमराई में कोयल, लगी कूकने।
क्षण मधुर है प्रिये, अब हमें मिल गए।
………..
-सुरेन्द्रपाल वैद्य

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh